रविवार, 16 अगस्त 2009

'' ज्योतिष्य -विज्ञान का अध्ययन - 2 '' [[ ए स्टडी इन ज्योतिष्य विज्ञानं ]]

'' ज्योतिष्य -विज्ञान का अध्ययन - 2 ''
[[ स्टडी इन ज्योतिष्य विज्ञानं ]]
" ज्योतिषीय ग्रहों के गुण धर्म " [1]
[[ The Natures & Siganificances of Astrologicale Planets ]]

आईये अब ज्योतिष्य-विज्ञानं का अध्ययन आरंभ करते हैं |सर्वप्रथम मैं ही आप की ओर से एक प्रश्न हवा में उछलता हूँ ,:--

" जातकी - ज्योतिष्य का कार्य- आधार क्या है "?

उत्तर तो मुझे ही देना हैं !

वास्तव में '' जातकी- ज्योतिष्य '' का जो कार्य - आधार है , लगभग वही सम्पूर्ण फलित ज्योतिष्य का कार्य-आधार भी है |

" किसी विशिष्ट काल-खंड या समय पर ,यथा ''किसी के जन्म - समय पर '' जन्म-स्थान से सुदूर अन्तरिक्ष में देखने पर किसी पूर्व निर्धारित विन्दु जिसे ज्योतिष्य में '' भचक्र अथवा राशिः - चक्र '' कहा गया है '' , के सापेक्ष नौ [ 9 ] ज्योतिषीय ग्रह जिस -जिस राशिः की सीध में दिखें उस ग्रह को तात्कालिक रूप से उसी राशिः में स्थित मान कर , तथा उस स्थान- विशेष [[ जो यहाँ पर जन्म-स्थान कहा गया है ]] के सटीक ''गणितीय '' पूर्वीय-क्षितिज [[ Horizen ]] पर राशिः- चक्र [12 राशियों के चक्र ] की जो भी राशिः उदित हो रही होती है उसे केन्द्र बना अर्थात आरम्भिक बिन्दु [[ लग्न या Ascendant ]] मान , बारह [ 12 ] विभागों का एक चक्र बना कर ही और इस में '' 9 वों '' ज्योतिष्य ग्रहों की सापेक्षिक स्थिति का , पर्यावरण , वातावरण , समाज तथा व्यक्तियों एवं व्यक्तित्वों पर पड़ने वाले हर संभावित प्रभावों का भूत : वर्तमान : भविष्य के परिपेक्ष्य में आकलन करने पर प्राप्त अन्तिम निष्कर्षों के आधार पर फलित सार कहना ही ' जाताकी - ज्योतिष्य ' का कार्य-आधार है |"

उपरोक्त से स्पष्ट है कि जातकी ज्योतिष्य एवं ज्योतिष्य के '' तीन आधार स्तम्भ है , जो क्रमशः
[ 1 ] नौ ( 9 ) ज्योतिषीय ग्रह ,
[ 2 ] बारह ( 12 ) भावों का भाव चक्र जिसमें लग्न प्रथम भाव होता है तथा
[ 3 ] बारह ( 12 ) राशियों का भचक्र या राशिः चक्र ;
किसी भी जन्मांग में किसी भी ग्रह की स्थिति इस प्रकार बताई जाती है ,'' अमुक ग्रह ( ग्रह का नाम ) , अमुक राशिः ( राशिः का नाम ) का हो कर ,जन्म लग्न से अमुक ग्रह ( लग्न से गणना करने पर ''जो भाव क्रमांक '' आवे , लग्न को शामिल करते हुए ) में बैठा है |
आईये अब ज्योतिषीय ग्रहों के '' गुण : धर्म और कारकत्व '' के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे ,::---

उपरोक्त अध्ययन से आप को यह तो स्पष्ट हो ही गया होगा कि ज्योतिष्य के अध्ययन में ग्रह ही सर्वोपरि हैं |
अतः आवश्यक है कि यदि :
हम ज्योतिष्य में पारंगत होना चाहते हैं तो सर्वप्रथम हमें ज्योतिषीय ग्रहों सेपरिचित होना पड़ेगा | मात्र परस्पर परिचित होना ही पर्याप्त नही होगा ,
''उनसे अभिन्न - मित्रता गांठनी होगी '' ,
कि आप काल - पटल पर लिखी उनकी हस्तलिपि मात्र ही पढ़ने में सक्षम न हो जायें वरन जब भी आप परस्पर मिलें तो प्रसन्नता पूर्वक आपस में बातें कर सकें 'वे आप से बोलने को सदैव उत्सुक रहें ' तत्पर रहें
क्या ऐसा सम्भव है ? ? ?

जी हाँ ऐसा सम्भव है !!! कोशिश तो कर के तो देखिये !!! अरे कोई कठिन नही बहुत ही आसान है ? हाँ इस के लिए आप को अपने शौक या रूचि को '' ज़ुनून '' की हद तक :सीमा तक ले जाना होगा ; क्या आप तैय्यार हैं ? ? ?

आशा है कि अब तक आप के और मेरे बीच एक संवाद- सेतु अवश्य स्थापित हो चुका होगा और आप मेरी शैली से भी परिचित हो कर उस से तादाम्य भी बैठा चुके होंगें , यदि कहीं कोई तथ्य समझ में न आवे , कहीं कोई शंका उठे तो बेहिचक संपर्क करें टिप्पणी बॉक्स है ही !! हाँ गति कुछ धीमी ही रखूंगा , कुछ तो जानते - बूझते हुए और कुछ अपनी अपरिहार्य बाध्यताओं के कारणों से !!

एक सत्य और तथ्य अभी से सहेज लें तो उचित होगा
'' [ १ ]- मेहनत : परिश्रम : लेबर आप को करना है
[ २ ]-और इतने मात्र को पढ़ लेने भर से आप ज्योतिषाचार्य नही बन जायेंगे
[ ३ ]-कुछ भारतीय ज्योतिष्य की कुछ शास्त्रीय ( क्लास्सिकल ) , और कुछ आधुनिक ज्योतिष्य विज्ञानं कि पुस्तकों की भी आवश्यकता पड़ेगी जिनका अध्ययन आप को स्वयम् मेरे इन आलेखों के प्रकाश में करना पड़ेगा , शंका - समाधान करने का भरसक प्रयत्न करूँगा ,
प्रतीक्षा करें तीसरी कड़ी '' ज्योतिष्य -विज्ञान का अध्ययन - 3 " का
क्रमशः



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बुधवार, 15 जुलाई 2009

'' ज्योतिष्य -विज्ञानं का अध्ययन - 1 ''


'' ज्योतिष्य -विज्ञान का अध्ययन - 1 ''
[[ ए स्टडी इन ज्योतिष्य विज्ञानं ]]

आज
बहुत दिनोंबाद अन्योनास्ति का काळ - चक्र आप से संबोधित है , इस मध्य
''अन्योनास्ति काळ चक्र को दिए अपने वचन के अनुसार काळ के पटल पर काळचक्र द्वारा लिखा लेखा पढ़ता रहा और उसे भोगता भी रहा ,और आगे अभी और भी भोगने की तैयारी है | "
अन्योनास्ति
ने जो प्रतिकूल पढ़ा उसके निवारण का कोई उपाय कर उसे भोगा जैसा कि वह कालचक्र से [[ अर्थात स्वयं से ]] वचनबद्ध हुआ था | ऐसा क्यों ? ऐसा इस लिए कि मैंने अपने अध्ययन काळ में ज्योतिष्य के बहुत से शास्र्तोक्त कथनों में अपने आप में अथवा दो कथनों को आपस में विरोधाभासी पाया था और संयोगवश ऐसी कुछ ग्रह स्थितियां एवं ग्रह योग . मेरे ही जन्मांग चक्र में ही थीं जिनका विभिन्न विद्वत जन भिन्न-भिन्न फलित बताते रहे ,भोग्य-काल में मैने जो भोग उसे ही सही माना ,क्यों कि अपना भोगा हुआ यथार्थ ही सत्य होता है ,''ज्योतिष्य में तो विशेष रूप से ''||
फलित कथन की अति-सरल पद्धति [] के बाद मैंने इसकी अगली कडियाँ भी ड्राफ्ट के रूप में तैयार कर लीं थीं | इसी बीच ज्योतिष्य शिक्षा के दृष्टि-कोण से एक लेख ''नक्षत्र -1'' कालचक्र पर पोस्ट किया क्यों की इस विषय पर काफी ईमेल मुझे मिले जन सामान्य लोगों के जिस में कई तकनिकी शब्दों की परिभाषा आदि पूछी गयी थी ,तथा ज्योतिष से जुड़ी बहुत सी शंकाएँ थीं, तो बहुतों ने अपना जन्मांग चक्र ही संलग्नक के रूप में ही भेज दिया था | उसी के बाद ही मेरे मस्तिष्क में यह लेख-माला लिखने का विचार आया , क्यों कि मेरा उद्देश्य जन सामान्य को सामान्य जीवन में ज्योतिष्य की व्यवहारिक उपयोगिता और महत्त्व बतलाना है , न कि कोई जादूगरी अथवा चमत्कार का तरीका बतलाना || मैं यह दावा तो नही करता कि इस सीरिज के अध्ययन मात्र से आप एक विशेषज्ञ ज्योतिषी बन ही जायेंगे , हाँ इतना ही आश्वस्त कर सकता हूँ कि अगर आप पूरी रूचि और गंभीरता के साथ इस सीरिज का अध्ययन करेंगे तो कमसे कम कोई ज्योतिष्य के नामपर आप को न तो मूर्ख बना सकेगा और न तो ठग ही पायेगा |
इस के साथ आप संभावनाओं का अनुमान लगा अपना श्रम-समय-धन आदि बचा सकते हैं | यहाँ एक बात जानलें मै '' ज्योतिष्य को संभावनाओं का विज्ञानं कहा करता हूँ '' और वास्तव में इस की यही सही परिभाषा है
इस विषय में आप कितना आगे तक जा सकते हैं यह स्वयं आप पर ही निर्भर करता है | तो आईये आरम्भ करते हैं
'' ज्योतिष्य -विज्ञानं का अध्ययन - 1 ''
[[ ऐ स्टडी इन ज्योतिष्य विज्ञानं ]]


ज्योतिष्य की जताकी पद्धति में यदि कुछ विशेष बिन्दुओं , तथ्यों एवं विवरणों जिनका सम्बन्ध ज्योतिष्य - शास्त्र के मूल सिद्धांतों से है , का गहन एवं विस्तृत एवं गहन अध्ययन कर उन्हें हृदयंगम कर लिया जाए तो मात्र जताकी ही नही फलित ज्योतिष्य की अन्य शाखाओं में भी सटीक फलित कथन सफलता पूर्वक किया जा सकता है ||
मैं अपने इस आलेख में क्रमवार उन बिन्दुओं से आप का परिचय कराऊंगा और उन बिन्दुओं के प्रत्येक पक्ष के महत्त्व को रेखांकित करने का प्रयत्न करूँगा | हाँ मेरी गति कुछ धीमी और शैली ज्यादा रोचक न हो , फ़िर भी मै इसे रोचक बनाने का प्रयत्न करूँगा |
''इस क्रम में प्रथम बिन्दु है ज्योतिषीय ग्रहों का गुण-धर्म || ज्योतिषीय ग्रहों के गुण धर्म बारे में '' ज्योतिष्य -विज्ञानं का अध्ययन - 2'' में पढ़ें ''

इसी क्रम में पाठकों से मेरा अनुरोध है कि वे टिप्पणियों द्वारा अपनी अपेक्षाएं और शंकाए दोनों भेजते रहें जिससे मैं आप की इस लेख माला को आप के लिए ज्यादा उपयोगी बना , इसे आप से और अधिक आत्मीयता से जोड़ सकूँ ||

बुधवार, 13 मई 2009

," नक्षत्र-1 "



." नक्षत्र -1" भारतीय ज्योतिष - विज्ञानं में नक्षत्रों का बहुत महत्त्व है , अगर मैं यह कहूँ की भारतीय ज्योतिष [ या पाश्चात्य ज्योतिष के अनुसार हिंदू -ज्योतिष ] का मूल-आधार ही '' नक्षत्र '' ही हैं तो ज्यादा उचित होगा । रामायण, महाभारत आदि प्राचीन कथानकों में भी ज्योतिषीय गणना हो या फलित- कथन अथवा काल या समय गणना नक्षत्रों के आधार पर ही की गयी है ; चाहे वह राम के राज्याभिषेक के सन्दर्भ में हो,
देंखें अध्याय 19 श्लोक 4 या फ़िर इसी सन्दर्भ यह श्लोक देखे
'' अद्य चन्द्रोSभ्युपगमन् पुष्यात् पूर्व पुनर्वसुम् पुष्य योग नियतं वक्ष्यन्ते दैवं चिन्तका: "
अर्थात फलित का विचार करने वाले बतारहे हैं कि अभी चंद्रमा पुनर्वसु [ नक्षत्र ] में है और शीघ्र ही पुष्य [ नक्षत्र ] में आने वाला है इसे वे योगप्रद [ राज्याभिषेक के लिए शुभ ] कहते हैं । इसी प्रकार पांडवों के अज्ञातवास काल के समय कौरवों द्वारा राजा विराट की गौओं का अपहरण करने पर विराट पुत्र उत्तर द्वारा उन्हें छुडाने जाने और बृह- न्नला के रूप में अज्ञातवास व्यतीत कर रहे अर्जुन का सारथी के रूप में साथ जाने और उत्तर के स्थान पर स्वयं युद्ध करने के पूर्व शंखनाद करने पर कौरवों द्वारा अर्जुन की शंख - ध्वनि पहचान कर यह सोचते हुए प्रसन्न होने कि समय- पूर्व अज्ञातवास में पहचान लिए जाने के कारण पांडवों को पुनः 14 वर्षों केलिए वनवास जाना पड़ेगा , और उनका राज इतने काल के लिए निष्कंटक हो जाएगा
पर भीष्म-पिताहामा द्वारा अज्ञातवास काल की समाप्ति कि गणना के लिए नक्षत्रों का उल्लेख अथवा कृष्ण के कर्ण से मिलने जाने पर चर्चा के दौरान कर्ण द्वारा अशुभ काल आने की संभावना प्रकट करते हुए काल-गणना हेतु नक्षत्रों का प्रयोग ,
भारतीय ज्योतिष क्या विश्व की इन दो प्राचीनतम रचनाओं में नक्षत्रों का उल्लेख स्पष्ट कर देता कि भारतीयों को ही इसका ज्ञान बहुत पहले से यानि अज्ञात काल से था ।
मैंने स्वयं तो मूल नही देखा है परन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण का एक उल्लेख अवश्य ही देखा है यथाः ,
" कृत्तिकास्वाग्निमादधीत् एतद्वा अग्ने नमस्तम्
यत्कृंत्तिका
: स्वायामेवैनम् देवतायामाधाय ब्रह्मवर्चसी भवति "
अर्थात कृत्तिका नक्षत्र में अग्नि का आधान करें । इस प्रकार अग्नि का आधान कर [उत्पन्न कर ] प्रणाम करें और कृत्तिका के नक्षत्र -देवता की आराधना कर मनुष्य ब्रह्म -तेज को प्राप्त होता है ।"
सनातन धर्म [हिंदू ] के तीज -त्योहारों के निर्धारण गणना में भी ' नक्षत्र ' प्रमुख इकाई होतें हैं हो । पूरी की पूरी हिंदू काल गणना ही नक्षत्रों के आधार पर ही की जाती है , महीनो के नाम भी यथा :- चैत्र :: चित्रा नक्षत्र से तो वैशाख ; विशाखा से अथवा कार्तिक मास : कृतिका नक्षत्र इत्यादि से ही ग्रहण किए गए , हैं, माह की पूर्णमासी [ पूर्णिमा ] को अथवा एकदिन आगे-पीछे अवश्य ही वह नक्षत्र होता है जिसके नाम पर माह का नाम होता है ।

यहाँ पर एक तथ्य स्पष्ट करना उचित होगा कि भारतीय काल -गणना में दिनांक अथवा तिथि की गणना तात्कालिक सूर्य एवं चंद्रमा के मध्य अंशों में स्थिति के अन्तर के आधार पर की जाती है , 12 * -12 * [डिग्री ] इस आधार पर सूर्य और चंद्र के मध्य 168 * [ डिग्री ] अन्तर होने पर उजाले या शुक्ल पाख [पक्ष ] 15 वीं तिथि [दिन ] को वहां पर जहाँ माह अमावस्या को पूर्ण होता है और जहाँ माह पूर्णमासी को पूर्ण होता है वहां पर 30 तिथि [दिन] अर्थात 15 दिन [ तिथि ] के कृष्ण -पक्ष के बाद 14 दिन बाद 15 वें दिन माह के नाम का नक्षत्र पड़ेगा [अथवा एक दिन पूर्व पड़ेगा ] इसी का समान्ज्स बैठाने के लिए ही ' अषाढ़ , फाल्गुनी , भाद्रपद ' इन तीन नक्षत्रों के दो-दो ' पूर्व एवं उत्तर ' विभाग किए गए हैं ,यथा पूर्वाषाढ़- उत्तराषाढ़ ,पूर्व फाल्गुनी - उत्तर फाल्गुनी , पूर्व भाद्रपद - उत्तर भाद्रपद ।

भारतीय ज्योतिष में नक्षत्रों की महत्ता को इसी से समझा जा सकता है कि एक नक्षत्र के चार विभाग कर उन्हें चार चरणों में बाँट कर प्रत्येक चरण को एक अक्षर आबंटित कर दिये गए हैं और इन्ही अक्षरों से भारतीय पद्धति में व्यक्ति का राशिः नाम रखे जाने की परम्परा रही है , इस राशिः नाम का उपयोग शुभ कार्यों के समय किया जाता है इसी कारण से भारतीय ज्योतिषीय परम्परा के मानने वालों के दो नाम होते है ,जैसा बता चुका हूँ एक राशिः नाम और दूसरा प्रसिद्ध नाम जिसका उपयोग रोज़मर्रा के जीव में और पुकारने के लिए किया जाता हैएक नक्षत्र का मान 13*- 20'-00" [ 13 डिगरी 20 मिनट अथवा अंश- कला ] होता है अतः प्रत्येक नक्षत्र-चरण का मान = नक्षत्र /4 = 13*-20'-00'' /4 = 800'/4 = 200' = 3*20'-00 होता है

ज्योतिषीय गणना के लिए कुल सत्ताईस नक्षत्रों का उपभोग करते हैं , 27 नक्षत्रों का कुल मान 12 राशियां होती है , एक राशिः का मान 30* [ 30 डिगरी ] होता है ; इस प्रकार 27 नक्षत्र गुणें 13* -20'= 360*/30*= 12 राशियां होता है । 360* उस वृताकार पथ का मान है जिसपर चल कर हमारी पृथ्वी एक वर्ष अर्थात 365 दिवसों और लगभग 6.25 घंटों में सूर्य का एक चक्कर लगा लेती है ,एक दिवस की गणना भारतीय पद्धति में सूर्योदय से सूर्योदय तक से करते हैं इसका मान [दिवस=वासर का मान सूर्योदय से सूर्योदय तक का ] वर्ष के कुछ विशेष अवसरों को छोड़ कर सामान्यतः घडी के घंटो से 24 घंटे नही होते है ; जब कि पाश्चात्य पद्धति में दिवसों की गणना अर्ध-रात्रि से र्ध-रात्रि तक के मध्य की जाती है ;अर्ध -रात्रि सदैव घड़ी में रात्रि के 12.00 अथवा 00.00 बजे ही मानी जाती है , अतः पाश्चात्य पद्धति में दिवस मान सदैव घड़ी के घंटों से 24 घंटे ही होते हैं

{ जारी है }



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[.]
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सोमवार, 1 दिसंबर 2008

फलित कथन की अति-सरल पद्धति

कालचक्र(अतिरिक्त )
[ ज्योतिष्य ]
"सर्वप्रथम स्पष्टकर देना उचित होगा कि मैं जन्म चक्र को 12 भावों में बाँटते समय , प्रत्येक भावः को ३०*{ अंशों=डिगरी} का ही मान कर सारी विवेचनाएँ करता हूँ, अर्थात सम-भाग भाव नियम को ''देहरी-दीपक न्याय के सिद्धांत‘” के साथ मान्यता देता हूँ"
मैं यहाँ पर जिस पद्धति का प्रयोग करूँगा ," उसे मैंने ' भावः आयु -वर्ष पद्धति ' कहा है''।
मेरा
उद्देश्य इस लेख द्वारा यह बताना है कि किस प्रकार से ज्योतिष्य के प्राचीन सिद्धांतों के आधार पर तार्किक विवेचना कर के सटीक फलित कथन किया जा सकता है><<>>>निम्नलिखित जन्मांग-चक्र को उदहारण के रूप में लेते हुए ,इस विवेचना-पद्धति यथा :; '' भावः आयु-वर्ष पद्धति '' के व्यवहारिक पक्ष का अध्ययन करेंगे :-<>


>जन्म २दिसम्बर १९४८ गुरूवार ,जन्म समय लगभग १८:४५ {अयनांशः —कृष्णामूर्ति }”
लग्न -मिथुन {1*- 45'-22'' /तृतीय भावः में शनि सिंह राशि में ,
/पंचम भाव तुला का शुक्र एवं केतु /षष्टभाव –वृश्चिक कासूर्य,तथा बुध //सप्तम भाव –धनु का चंद्र ,गुरु वा मंगल /एकादश भाव में राहू[लग्न से ग्यारहवां];
[जन्म नक्षत्र :मूल नक्षत्र तृतीय चरण ]
जन्म पर केतु महादशा भोग्य[अवशेष ]
=2 वर्ष / 4 माह / 29 दिन
>>>>.सामान्य चर्चा :----------------> अभी ज्यादा तकनीकी विवरण नही दे कर , केवल स्थूल-चर्चा द्वारा अपने पाठको को मात्र विषय से परिचित करना चाहता हूँ , तकनीकी विवरण मेरी अगली पोस्ट से आने शुरू होंगे

"आधुनिक विज्ञान चाहेजो कहेu , मनुष्य क्या '' चर-अचर'' सभी, अर्थात सम्पूर्ण-सृष्टि अपने प्रारब्ध या भाग्य के ही आधीन होती है "
  • ''इस पद्धति में एक भाव को एक आयु वर्ष के बराबर मान कर फलित की गणना की जाती है ''लग्न से बारहवें [12 वें ] भावः तक ,''12 : 12 वर्षों '' की आवृतियाँ होती हैं जिसे मैंने '' आयु युग-चक्र '' कहा है पहली आवृति : लग्न सेआरम्भ करके 12 वें भावः तक जातक के जन्म के पहले वर्ष से लेकर बारहवें वर्ष की आयु तक को ; दूसरी आवृति इसी ' भावः चक्र ' द्वारा , आयु के 13 वें वर्ष से लेकर 24 वें वर्ष की आयु तक को प्रर्दशित करते हैं , इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए
  • हम यहाँ पर जातक की आयु के सोलहवें वर्ष { २ -दिसम्बर-१९६३ ई० से आरंभ } को विचार के लिए ले रहें हैं <==> जो लग्न से चतुर्थ भाव: से प्रकट होता है , '' आयु युग -चक्र ''की दूसरी आवृति में आता है
  • सूर्य पुत्र शनि भाग्य धर्म तथा पितृ भाव अर्थात नवम् भाव का कारक होने के साथ -साथ भाग्य ::प्रारब्ध का नैसर्गिक या स्थायी कारक भी है // इसी केसाथ साथ शनि इस जन्मांग में नवम् भावः का भावेश {स्वामी }भीहोकर तृतीय भावःमें बैठा है यहाँ पर शनि श्रम तथा प्रारब्ध [ भाग्य ]का प्रतीक एवं उच्च-शिक्षा का दोहरा कारक हो जाता है , विषय वार नवम भाव का स्थायी कारक होने एवं नवम् भावेश होने के कारण भी
  • शनि का राशीश प्रकाश का कारक सूर्य [ तृतीयेश ] , यश-कीर्ति के भावः[चतुर्थ ] के स्वामी चतुर्थेश बुध जो लग्नेश भी है [[ लग्न =उद्यम ,पदर्शित सफलता ,जय ]] के साथ , शत्रु : जय भावः षष्ठ भावः में लाभेश मंगलकी ही दूसरी राशिः वृश्चिक में बैठा है चतुर्थ-भावः ही स्कूली -शिक्षा को पदर्शित करता है तृतीय भावः लेखन काकारक है , जब कि ग्रहों में बुध , जो यहाँ लगनेश-चतुर्थेश है , लेखन-कार्य का कारक होता है
  • बुध स्कूली-शिक्षा { चतुर्थ-भावः भावेश } के सन्दर्भ में ,प्रयत्न =कोशिश {लग्नेश } से ,परीक्षा {तृतीय भावः} नामक शत्रु { षष्ठ भावः } पर लेखन {तृतीय भावः तथा बुध } में श्रम { शनि } एवं मेधा {पंचम भावः} औरप्रतिउत्पन्न-मति {बुध} नामक शस्त्र के प्रयोग से संघर्ष {लग्न एवं षष्ठ } में सफलता {लग्न} ,विजय-लाभ { एकादश ,लग्न तथ षष्ठ भावः } दिलवाई और जातक का नाम जनता के मध्य प्रकाशितहुआ {चतुर्थ-भावः एवं सूर्य }
  • वैसे तो शनि का बैठना अशुभ नही होता जब तक की बहुत अधिक विपरीत परिस्थितियाँ हों शास्त्रों में शनि का देखना {दृष्टि} और गुरु का बैठना { सहचर्य } अशुभ कहा गया है यहाँ पर एक बिन्दु विपरीत है शनि सूर्य का पुत्र माना गया है, शनि को तो पिता सूर्य का नैसर्गिक शत्रु कहा गया है, परन्तु पिता सूर्य को पुत्र शनि का शत्रु नही माना गया है; इस प्रकार पुत्र शनि तो पिता का शत्रु है , परन्तु पिता सूर्य ,पुत्र का शत्रु नही है
  • फलित क्या रहा ? ———->शुभ: जातक ने एजुकेशन बोर्ड की दसवीं की परीक्षा में प्रथम श्रेणी में सफलता प्राप्त की लोगों‘ में‘यश- कीर्ती‘ “ चतुर्थ भाव के भागी बने , नाम प्रकाशित हुआ {सूर्य की राशि सिंह में शनि है } इस के लिए लेखन कार्य (तृतीय भाव) को प्रदर्शित करता है :: परीक्षा में लेखन कार्य , श्रम (शनि) के साथ करना पडा- बुद्धि चतुर्थ भावः जिस का स्वामी प्रति-उत्पन्नमाति बुध यश कीर्ती कारक सूर्य के साथ जय-स्थान में ,लाभेश एवं तृतीय भावः कारक मंगल के ही दूसरे भाव में (वृश्चिक राशि में ) एक साथ बैठे हैं। अतः यश-कीर्ति का पद लाभ दिया


  • यह शुभ फलित 16 वें आयु-वर्ष के प्रथम-पूर्वार्ध में प्राप्त हुआ मार्च से अप्रैल तक परीक्षाएं चलीं मई या जून के अन्तिम सप्ताह मेंपरीक्षाफल आया जातक की '' शुक्र महादशा में शनि भुक्ति में शनि अन्तर-इस ''{ विंशोत्तरी } दिनांक 1 मार्चको आरम्भ हो कर 1 मई 1967 तक चली
    "क्या सभी कुछ शुभ ही शुभ रहा ? !!!!नही !!!! १९६४ मई में रेलैप्स टायफ़ायड ,और अक्तूबर में दायां हाथ टूट गया ।" - : : अब हाथ टूटने कि घटना कि विवेचना करेंगे : ----> इस समय जातक की शुक्र महादशा ,शनि भुक्ति बुध अन्तर दशा चल रही थी
    1964 आयु वर्षेश बुध [चतुर्थेश =सोलहवां वर्ष ] , तृतीयेश सूर्य के साथ [ दाहिना हाथ :: तृतीय भावः] षष्ठ भावः मेंरोग-शोकभाव] मंगल कि एक राशि वृश्चिक पर बैठा है ओर मंगल तृतीय भावः का नैसर्गिक कारक भी है अतः मंगल स्वयं हाथका प्रतीक होकर तृतीयेश सूर्य और अपने घोर शत्रु बुध को अपनी राशि में समेट कर सोलहवें वर्ष कि आयुमें हाथसम्बंधित फलित देने के लिए पूर्ण अधिकृत हो जाता है लग्न चक्र में तृतीय भावः में ,तृतीय भावः से षष्ठ भावः [ तृतीय भावः का रोग -शोक ] का स्वामी [ भावेश] शनिबैठा है ; शनि ही जन्म राशिः[ या चंद्र लग्न ] से द्वितीय एवं तृतीय भावों का भी स्वामी है :: जो जन्म लग्न से क्रमशः अष्टम [दुर्घटना ,आकस्मिक घटनाएँ ] नवम् भावः हैं राहू, मंगल के आधिपत्य वाले भावः,जन्म लग्न सेएकादश: भावः में; शनि के अधिपत्य के भावः से तीसरे -चौथे बैठ कर , विशेष रूप से चंद्र-लग्न से तीसरे भावः [जन्म से नवम् भावः ] से तीसरे बैठ कर "भावत भावाम नियम-सिद्धांत " के परिपेक्ष्य में मेरे कथन का प्रबलसमर्थन कर रहा हैं अष्टमेशशनि, मंगल , राहू एवं सूर्य से आपस में सम्बन्ध बना कर ये सब ग्रह दुर्घटना की बड़ी प्रबल सम्भावना का योग बना रहे है अपनी स्थितियों के अनुसार '' इन सबों का सम्मिलित प्रभाव या तो बहुत बड़ाआकस्मिक लाभ अथवा फ़िर दुर्घटना देता है '' जो कि दोनों ही यहाँ प्राप्त हुए :->आकस्मिक रूप से लाभ में हाई-स्कूल परीक्षा पहली बार में प्रथम श्रेणी में उत्तरीण की , जब कि उन दिनों पूरे, विशेष रूप से उत्तर भारत में यूपी एजुकेशन बोर्डकी परीक्षाएं बड़ी कठिन व सम्मानजनक मानी जाती थीं[जन्म-लग्न से एकादश भावः=लाभ भावः कासंबंध होने के कारण परन्तु राहू, राहू केराशिश:षष्ठेश मंगल ओर तृतीयेश सूर्यको का रोग-शोक भावः षष्ठ में बैठने के कारण से दुर्घटना में हाथ टूटने के रूप में अशुभ फलित प्राप्त हुआ हाँ यहअवश्य रहा की दोनों घटनाओं का समय अलग-अलग रहा ,दोनों घटनाओं के समयांतराल का कारण जन्मांग-चक्र केअन्य कारकों के प्रभावके अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है
    आप ने देखा की किस प्रकार मैंने केवल जन्म चक्र एवम् भावाधार सिद्धांत से सोलहवें आयु वर्ष की संभावित प्रमुख घटनाओं का खाका स्पष्ट रूप से खीच दिया कोई भी बात छिपाई नही है ,जिन नियमों से विवेचना की गयी वे ज्योतिष्य सर्वमान नियम हैं जो अनादि काल से प्रयोग में रहे हैं ;
    अब अगर इसे विंशोत्तरी महा दशा पद्धति एवम् गोचर के साथ प्रयोग किया जाए तो कैसा रहेगा ???!!
    शेष अगले अंक-फलित कथन की अति सरल पद्धति-2में अन्योनास्ति
    कालचक्रकी
    'चौपाल' के 'झरोखा' से 'चिटठा'




    {'कबीरा' का [विशेष:: यह लेख इसी नाम से प्राकाशित था परन्तु कुछ तकनिकी कारणों से पूरा का पूरा पुराना ब्लॉग समाप्त कर के उसी नाम से नया ब्लॉग बना लेख को विस्तारित कर पुनः प्राकाशित किया जारहा है


सोमवार, 17 नवंबर 2008

ब्लोगिंग

मैंने भी ब्लोगिंग शुरू कर दी है


 

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